जयंती भिखारी ठाकुर के पुनर्पाठ :परिचय दास
जयंती भिखारी ठाकुर के पुनर्पाठ :परिचय दास

भिखारी ठाकुर के साहित्य पर विचार करत समय उनकर रचनात्मक संसार अउरी स्पष्ट रूप से उभर के सामने आवेला। पश्चिमी आलोचना-पद्धतियो~ जइसे समाजशास्त्रीय यथार्थवाद, लोक-सांस्कृतिक अध्ययन, परफ़ॉर्मेंस थ्योरी, सबऑल्टर्न स्टडीज़, अउरी नाट्यशास्त्र से जुड़ल आधुनिक विचार, भिखारी ठाकुर के साहित्य के भीतर मौजूद गहिर सामाजिक बोध के पहचान करे में मदद करेली। भिखारी ठाकुर के रचना-संसार के केंद्र में आम आदमी, खासकर हाशिया पर खड़ा मजूर, स्त्री, प्रवासी, दलित-समान स्थिति वाला लोक-समुदाय मौजूद बा। उनकर साहित्य सामाजिक संरचना के भीतर मौजूद शक्ति-संतुलन, शोषण अउरी प्रतिरोध के जिंदा दस्तावेज ह।
साहित्य साहित्य समाज के खाली प्रतिबिंने ना ह बल्किन हस्तक्षेपो ह। भिखारी ठाकुर के नाटक आ गीत एह दृष्टि से पूरी तरह हस्तक्षेपकारी साहित्य ह। ‘बिदेसिया’ में प्रवासी मजदूर के पीड़ा, ‘बेटी-बेचवा’ में स्त्री के वस्तुकरण, ‘गबरघिचोर’ में पितृसत्तात्मक नैतिकता पर सवाल—ई सब पश्चिमी आलोचना के शब्द में सोशल क्रिटीक ह बाकिर ई क्रिटीक किताबन के भाषा में ना बल्किन लोक के बोली, गीत, नाच अउरी संवाद के माध्यम से प्रकट होखेला।
भिखारी ठाकुर के नाटक खाली लिखित पाठ ना ह बल्किन मंचीय घटना ह। रिचर्ड शेखनर जइसन विचारक परफ़ॉर्मेंस के सामाजिक कर्म मानेला, जवन समाज के भीतर मौजूद तनाव, इच्छा अउरी विरोधाभास के सार्वजनिक रूप देला। भिखारी ठाकुर के नाटक ठीक ओही तरह काम करेला। उनकर रंगमंच मनोरंजन के साथे-साथे सामूहिक संवाद के जगह ह जहाँ दर्शक निष्क्रिय ना रहेला बल्किन भावनात्मक अउरी नैतिक रूप से शामिल हो जाला। ई सहभागिता आधुनिक परफ़ॉर्मेंस थ्योरी के दायरा में पुरहर फिट बइठेला।
भिखारी ठाकुर के साहित्य पर विचार कइल जाय त उनकर रचना में स्त्री के स्थिति खास महत्त्व रखेले। भलहीं भिखारी ठाकुर खुद पुरुष आ अपने समय के सामाजिक संस्कार से बंधल रहलन बाकिर उनकर साहित्य में मेहरारू खाली मौन पीड़िता ना रहेली। ‘बेटी-बेचवा’ में बेटी के सवाल, ‘गबरघिचोर’ में स्त्री के नैतिक निर्णय, ‘बिदेसिया’ में परित्यक्ता स्त्री के पीड़ा—ई सब स्त्रीवादी आलोचना के लिए महत्त्वपूर्ण पाठ ह। स्त्रीवाद अक्सर एजेंसी, वॉइस अउरी रिप्रेज़ेंटेशन के सवाल उठावेला। भिखारी ठाकुर के मेहरारू कई जगह चुप बाड़ी बाकिर उनकर चुप्पी खुद एगो सामाजिक बयान बन जाले। ई चुप्पी व्यवस्था पर आरोप ह।
सबऑल्टर्न स्टडीज़, जवन पश्चिमी अकादमिक दुनिया में विकसित भइल, ओकर मुख्य सवाल ई बा कि इतिहास अउरी साहित्य में हाशिया के आवाज कइसे दर्ज होखेली। भिखारी ठाकुर के साहित्य एह दृष्टि से सबऑल्टर्न का आत्मकथ्य जइसन बा। ऊ पढ़ल-लिखल अभिजात वर्ग खातिर ना लिखत रहलन बल्किन खुद ओही वर्ग के हिस्सा रहलन जे शोषण झेलत रहल। एह कारण उनका साहित्य में प्रतिनिधित्व के समस्या कम बा। आलोचक अक्सर पूछेला ~ “ के बोलेला?” भिखारी ठाकुर के मामले में जवाब साफ बा—”इहाँ हाशिया खुद बोल रहल बा”।
भिखारी ठाकुर के साहित्य वर्ग-संघर्ष के जिंदा चित्र प्रस्तुत करेला। मजदूर के बिदेस पलायन, आर्थिक मजबूरी, पारिवारिक विघटन—ई सब पूँजीवादी संरचना के दुष्परिणाम के रूप में देखल जा सकेला। भिखारी ठाकुर पूँजीवाद शब्द शायद ना इस्तेमाल कइले होखस बाकिर उनकर नाटकन में जे आर्थिक दबाव दिखाई देला, ऊ विश्लेषण के लिए पर्याप्त सामग्री देला। ‘बिदेसिया’ के नायक रोजगार खातिर घर छोड़ेला—ई स्थिति एलियनेशन के सिद्धांत से जुड़ जाले।
सांस्कृतिक अध्ययन में लोक-संस्कृति के सवाल पर खास जोर बा। पहिले लोक-संस्कृति के ‘पिछड़ल’ मानल जात रहे बाकिर आधुनिक सांस्कृतिक अध्ययन लोक के भीतर मौजूद रचनात्मकता अउरी प्रतिरोध के शक्ति के पहचान ऊ कइले बा। भिखारी ठाकुर के साहित्य एह संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण बा। उनका लोकगीत, नाच अउरी संवाद सत्ता के आधिकारिक संस्कृति से अलग एक वैकल्पिक सांस्कृतिक स्पेस बनावेला। ई स्पेस में नैतिकता, न्याय अउरी सामाजिक मूल्य लोक के नजर से परिभाषित होखेला, ना कि शास्त्रीय या औपनिवेशिक मानकन से।
भिखारी ठाकुर के साहित्य पर विचार कइल जाला त औपनिवेशिक समय में जब शिक्षा, साहित्य अउरी रंगमंच पर बाहरी प्रभाव बढ़त रहे, तब भिखारी ठाकुर के रचनात्मक आग्रह देसी आ लोक के पक्ष में रहल। ऊ ना त औपनिवेशिक भाषा अपनवलन, न ही अभिजात कलात्मक रूप। ई रुख पोस्ट-कोलोनियल थ्योरी के अनुसार सांस्कृतिक प्रतिरोध के उदाहरण ह। उनकर साहित्य औपनिवेशिक आधुनिकता के खिलाफ लोक-आधारित आधुनिकता के प्रस्ताव रखेला।
भिखारी ठाकुर के नाटकन में बार-बार कुछ खास संरचना दोहरावल जाली—बिछोह, पुनर्मिलन, नैतिक संकट, सामाजिक निर्णय। ई संरचना लोककथा आ मिथकीय ढाँचे से जुड़ल बा। लेवी-स्ट्रॉस के विचार के अनुसार, समाज अपने विरोधाभास के कथा के माध्यम से सुलझावेला। भिखारी ठाकुर के नाटको समाज के भीतर मौजूद स्त्री-पुरुष, घर-बिदेस, नैतिकता-अनैतिकता जइसन द्वंद्व के मंचन ह।
साहित्य के अर्थ पाठक के प्रतिक्रिया से बनेला। भिखारी ठाकुर के साहित्य में दर्शक-पाठक के भूमिका बहुत सक्रिय बा। लोक-दर्शक नाटक देख के रोवेला, हँसेला, गाली देला, ताली बजावेला। ई प्रतिक्रिया ही नाटक के पूरा करेला। एह दृष्टि से भिखारी ठाकुर के साहित्य ‘ओपन टेक्स्ट’ ह, जवन हर प्रदर्शन में नया अर्थ ग्रहण करेला।
विचार कइला पर ई साफ हो जाला कि भिखारी ठाकुर के साहित्य किसी भी तरह से ‘लोक’ कहि के छोट ना कइल जा सकेला। उनकर रचना आधुनिक आलोचनात्मक सिद्धांत के हर पैमाना पर खरी उतर सकेली। फर्क बस ई बा कि ऊ सिद्धांत के भाषा में नाहीं, बल्किन जीवन के भाषा में बोलत बा। पश्चिमी दृष्टि भिखारी ठाकुर के महत्व के समझे में मदद त करेली, लेकिन भिखारी ठाकुर के साहित्य खुद पश्चिमी आलोचना के दायरा के भी विस्तार करेला। उनका साहित्य बतावेला कि गहिरा सामाजिक बोध, कलात्मकता अउरी वैचारिकता खाली विश्वविद्यालयी या अभिजात साहित्य ले सीमित ना ह, बल्किन लोक के जीवन में, लोक के बोली में आ लोक के मंचो पर पूरी ताकत से मौजूद बा।
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भिखारी ठाकुर के साहित्य के भीतर मौजूद नैतिक विमर्श पर अगर नैतिक दर्शन के संदर्भ में विचार कइल जाए, त उनकर रचना “मोरल एब्सोल्यूटिज़्म” से ज्यादा “सिचुएशनल एथिक्स” के करीब नजर आवेली। उनकर नाटकन में नैतिकता कवनों जड़ नियम ना ह बल्किन जीवन के जटिल परिस्थितियन से उपजल फैसला ह। ‘गबरघिचोर’ में स्त्री के निर्णय के सवाल पर समाज असमंजस में पड़ जाला। ई असमंजस पश्चिमी अस्तित्ववादी विचार से मेल खाला, जहाँ सही–गलत पहले से तय ना रहेला बल्किन स्थिति के भीतर उभर के सामने आवेला। भिखारी ठाकुर के यहाँ नैतिकता लोक के अनुभव से निकल के आवेली, ना कि धर्मग्रंथ या कानून से।
मनोविश्लेषणात्मक आलोचना के नजर से देखल जाए त भिखारी ठाकुर के पात्र सामूहिक अवचेतन के प्रतिनिधि लागेलें। बिछोह, डर, अपराधबोध, प्रतीक्षा—ई सब भाव उनके नाटकों में बार-बार लौट के आवेलें। ‘बिदेसिया’ में पत्नी के इंतज़ार केवल सामाजिक घटना ना ह, बल्कि गहिर मनोवैज्ञानिक अवस्था ह, जहाँ आशा अउरी निराशा साथ-साथ चलत बा। पश्चिमी मनोविश्लेषण में जइसे फ्रायड आ जंग सामूहिक स्मृति आ आर्कटाइप के बात करेलें, ओही तरह भिखारी ठाकुर के पात्र लोक-स्मृति के भीतर बसल archetypal figures बन जालें—प्रवासी पुरुष, प्रतीक्षारत स्त्री, मध्यस्थ समाज।
आधुनिकता के संदर्भो में भिखारी ठाकुर के साहित्य के अलग ढंग से पढ़ल जा सकेला। आधुनिकता अक्सर शहरीकरण, औद्योगीकरण अउरी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोड़ल जाले। लेकिन भिखारी ठाकुर के यहाँ आधुनिकता के अनुभव पीड़ा के रूप में प्रकट होखेला। बिदेस जाना, पैसा कमाना, परिवार से दूर होना—ई सब आधुनिक जीवन के अनिवार्य परिणाम ह। पश्चिमी आधुनिकतावादी साहित्य जइसे जॉयस या एलियट में जे टूटन, अकेलापन अउरी विस्थापन देखे के मिलेला, ओकर लोक संस्करण भिखारी ठाकुर के साहित्य में मौजूद बा, फर्क बस ई कि वहाँ भाषा आ रूप अभिजात बा आ यहाँ लोकधर्मी।
नाट्य-सिद्धांत में ब्रेख्त के ‘एपिक थिएटर’ के अवधारनो भिखारी ठाकुर के रंगमंच से जोड़ल जा सकेला। ब्रेख्त दर्शक के सोच में डालल चाहत रहलें, खाली भावुकता में बहाना नाहीं। भिखारी ठाकुर के नाटक भी रोवावेलें, हँसावेलें बाकिर साथे सवालो छोड़ जालें। दर्शक नाटक खतम होखला के बादो निर्णय के बोझ उठावेला। ई दूरी बनावे के तकनीक भले अलग रूप में हो बाकिर उद्देश्य समान बा—दर्शक के चेतना के सक्रिय करना।
भाषा-दर्शन के नजर से देखल जाय त भिखारी ठाकुर के भोजपुरी भाषा~प्रयोग बहुत अर्थपूर्ण बा। भाषा यहाँ केवल संप्रेषण के साधन ना ह बल्कि पहचान के राजनीति ह। पश्चिमी विचारक विट्गेंस्टाइन भाषा-खेल के बात करेलें—भिखारी ठाकुर के भोजपुरी ठीक ओही तरह लोक-जीवन के भाषा-खेल ह। हर शब्द में सामाजिक संदर्भ, संबंध अउरी सत्ता के छाया मौजूद बा। भोजपुरी के मंच पर लाना अपने-आप में सांस्कृतिक प्रतिरोध के काम करेला।
इतिहासलेखन में “माइक्रो-हिस्ट्री” के अवधारणा बा, जहाँ बड़े इतिहास के बजाय छोटे जीवन, छोटे समुदाय के अनुभव के महत्व देहल जाला। भिखारी ठाकुर के साहित्य भी एह माइक्रो-हिस्ट्री के रूप में पढ़ल जा सकेला। उनका नाटक आजादी के आंदोलन या बड़े राजनीतिक घटना पर सीधे बात ना करेला, लेकिन आम आदमी के रोजमर्रा के संघर्ष के दर्ज क के इतिहास के खाली जगह के भर देला। ई इतिहास कागज पर कम, मंच पर ज्यादा जिंदा बा।
पश्चिमी आलोचना में “पॉपुलर कल्चर” के अध्ययन आज बहुत महत्वपूर्ण मानल जाला। भिखारी ठाकुर के नाटक लोकप्रिय संस्कृति के श्रेष्ठ उदाहरण ह। ऊ जनप्रिय रहलें, भीड़ जुटावलें, लोगन के साथ सीधा संवाद कइलें। पश्चिमी दृष्टि से देखा जाए त लोकप्रियता आ गंभीरता एक-दूसरे के विरोधी नाहीं। भिखारी ठाकुर के साहित्य एह मिथक के तोड़ देला कि जे लोक में लोकप्रिय बा, ऊ वैचारिक रूप से कमजोर होई।
भिखारी ठाकुर के साहित्य के समयबोधो पर दार्शनिक दृष्टि से विचार कइल जा सकेला। उनका नाटकों में समय रेखीय ना बा बल्कि चक्रीय बा। बिछोह बार-बार होखेला, दुख लौट के आवेला, संघर्ष खतम होके फिर शुरू हो जाला। ई समयबोध आधुनिक समय-धारणा से अलग बा लेकिन उत्तर-आधुनिक विचार में जवन नॉन-लिनियर टाइम के बात होखेला, ओकर लोक रूप भिखारी ठाकुर के साहित्य में पहले से मौजूद बा।
आलोचना अक्सर “ऑथरशिप” के सवाल उठावेली—रचनाकार कौन ह? भिखारी ठाकुर के मामले में लेखक, अभिनेता, गायक अउरी निर्देशक सब एके देह में समाइल बा। ई सामूहिक लेखकत्व के धारणा से जुड़ जाला, जवन पश्चिमी पोस्ट-स्ट्रक्चरलिस्ट विचार में उभर के आवेली। उनका साहित्य व्यक्तिगत प्रतिभा के साथ-साथ सामूहिक लोक-रचनात्मकता के परिणाम ह।
एह तरह देखल जाय त भिखारी ठाकुर के साहित्य के मूल्यांकन खातिर केवल एक औजार ह, अंतिम निर्णय नाहीं। उनका साहित्य के असली ताकत एह में बा कि ऊ हर दृष्टि से पढ़े के क्षमता रखेला—चाहे ऊ अकादमिक होखे या लोकधर्मी। भिखारी ठाकुर के रचना साबित करेली कि लोक-साहित्य कोई पिछड़ा या अधूरा रूप नाहीं, बल्कि ऊ भी उतने ही जटिल, विचारशील अउरी गहिरा बा, जितना दुनिया के कोई भी महान साहित्य। पश्चिमी दृष्टि से 55विचार करते-करते अंत में एह बात के स्वीकार कइल जरूरी बा कि भिखारी ठाकुर के साहित्य खुद एक स्वतंत्र दृष्टि ह—जवन बाहरी सिद्धांत के जरूरत से ज्यादा, जीवन के सच्चाई से संचालित बा।
परिचय दास
प्रोफेसर, नव नालंदा महाविहार सम विश्वविद्यालय, नालंदा ,मोबाइल~ 9968269237






